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उम्दा इफ्तार इस बार नहीं होंगे, मस्जिदों से बमुश्किल अजानें आएंगी, वहां इबादत नहीं होगी

कहते हैं कश्मीर में एक मौसम रमजान का होता है, और वह सारे मौसमों से ज्यादा खूबसूरत है। कुबूल हो चुकी दुआओं जैसा रमजान। यूं तो कश्मीर में रमजान के आने की आहट वहां के लोकगीतों से पता चलती है, लेकिन इस बार धुन गुमसुम हैं।


सालभर सुरक्षा हालात भले कितने ही खराब रहें, लेकिन रमजान आने तक माकूल होने लगते हैं। कोरोना की वजह से इस बार परेशानी दूसरी है। तय आलीशान इफ्तार अब नहीं होंगे, मस्जिदों से बमुश्किल अजानें आएंगी वहां इबादत नहीं होगी। होंगे तो बस रोजे और घर में बैठे रोजेदार।


घाटी में हर दिन इफ्तार की तैयारियां दोपहर से ही कंडूर यानी स्थानीय कश्मीरी रोटी बनानेवाले की दुकान के सामने जमा होती भीड़ से होती थी। कंडूर स्पेशल ऑर्डर लेता था और लोगों को अपनी कस्टमाइज ब्रेड मिलती थी, गिरदा, ज्यादा घी और बहुत सारी खस-खस या तिल वाली। लेकिन इस साल ऐसा माहौल ही नदारद है।

रमजान के महीने में दान का भी बड़ा महत्व है। इसमें दान के दो रूप होते हैं। पहला- जकात, जिसमें कुल कमाई का तय हिस्सा दान में देना होता है। और दूसरा- सदका, इसमें मुसलमान अपनी मर्जी से जितना दान देना चाहें, उतना दे सकते हैं। (फोटो क्रेडिट: आबिद बट)

गलियों और मोहल्लों में जो जश्न था वो भी नहीं है। सिविल लाइन्स की मशहूर फूड स्ट्रीट जहां हर किसी की जेब की हद में आनेवाला सेवन कोर्स कश्मीरी वाजवान मिल जाता था, अभी खाली पड़ा है। इस बार वह सब भी नहीं है जो इफ्तार के बाद जहांगीर चौक के कश्मीरी हाट को रमजान की नाइट लाइफ हर रोज गुलजार करता था। यूं कह सकते हैं कि साल के इकलौते सबके चहेते इस त्यौहार में इफ्तार से सुहूर तक जिस कश्मीरी नाइटलाइफ को सरकार मशहूर करना चाहती थी वह अब सिर्फ भुलाई जा चुकी कहानी भर है।


मोहम्मद रफीक, पुराने शहर के नवाकदल इलाके में मेवों की दुकान चलाते हैं। कहते हैं लॉकडाउन का छोटे व्यापारियों पर बड़ा असर होगा। खासकर उनपर जिनकी सालभर की कमाई रमजान पर निर्भर रहती है। और क्योंकि रमजान में खानेपीने के सामान की जरूरतें बढ़ जाती हैं तो पैनिक बायिंग और सप्लाय कम पड़ने की भी चिंता है।


कश्मीर की मशहूर हजरबल दरगाह हो या फिर खूबसूरत दस्तगीर साहब हर मस्जिद और श्राइन पर इफ्तार के लिए दस्तरख्वान सजाए जाते हैं। सेब, खजूर और किसी पेय के साथ। इस बार इन मस्जिदों से सिर्फ अजानों की आवाजें आ रही हैं। न इबादत की इजाजत है और आलीशान इफ्तार की तो गुंजाइश भी नहीं।


डाउन टाउन में बनी सबसे बड़ी जामा मस्जिद जो यहां आने वालों से आबाद रहती थी, खासतौर पर आखिर जुमा यानी रमजान के आखिरी शुक्रवार के लिए, जब पूरे शहर के कोनों से लोग यहां आते थे इस बार खाली और सूनी पड़ी है।


डल झील के किनारे बनी हजरतबल श्राइन जो मोहम्मद साहब की पवित्र निशानी मुए ए मुकद्दस का घर भी है इन दिनों बंद कर दी गई है।


फिजिकल डिस्टेंसिंग जो कोरोना के वक्त में सबसे अहम है रमजान के रिवाज पर सबसे ज्यादा मुश्किल साबित हो रहा है। अपने इलाके के बुजुर्ग मोहम्मद शाहबन के लिए ये बेहद कठिन वक्त है। उनके मुताबिक मुइजिन को मिलाकर गिनते के चार लोगों को इलाके की मस्जिद में नमाज पढ़ने की इजाजत है, जबकि ज्यादातर बंद कर दी गई है। वह कहते हैं, जब हम गले मिलकर अपने रिश्तेदार, दोस्त और आसपड़ोसियों को मुबारकबाद देना चाहते हैं उस वक्त हमें हाथ मिलाने की भी मनाही है। उनका मानना है कि यह हमारी रूह पर असर डाल रहा है।


जकात या सदका यानी चैरिटी इस महीने का अहम हिस्सा है। मुस्लिम धर्म में जकात और सदका जरूरी माना जाता है। इसे लेनेवाले उम्मीद लिए दरवाजों तक आते हैं। लेकिन इस बार दरवाजों पर ताले हैं। गलियों में सिर्फ तेज हवाओं की आवाजें आती हैं।

रमजान के शुरुआती 15 दिनों में 'जूनी रातें' बहुत महत्वपूर्ण थीं क्योंकि, इन्हें चांद रातों के रूप में माना जाता था। उस समय शांत माहौल होने से लोगों में एकजुटता भी दिखती थी। (फोटो क्रेडिट: आबिद बट)

घाटी के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एसएमएचएस के रजिस्ट्रार डॉक्टर खावर खान कहते हैं जरूरत है कि मौलवी और मौलाना को आगे आकर लोगों को इक्ट्‌ठा होने और अपनी सेहत का ख्याल रखने की हिदायत देनी चाहिए। शायद लोग उनकी बात सबसे ज्यादा मानें।


72 साल की नाजिया बानो पुराने शहर हब्बाकदल में रहती हैं। कहती हैं बचपन में वह अपनी सहेलियों के साथ रमजान में एक दूसरे के घर गाना गाने जाया करती थीं। इफ्तार से पहले नाच-गाना होता था और वह कश्मीरी डांस रऊफ भी करतीं थीं। अब सब रिवायतें और रिवाज बदल गए हैं। अब ये भी नहीं मालूम की हमारा हमसाया कौन है और पास के घर में कितने लोग रहते हैं।


मशहूर इतिहासकार जरीफ अहमद जरीफ कहते हैं लोगों की लाइफस्टाइल बदल रही है। पहले सुहूर की नमाज पढ़ने मर्द और औरतें एक साथ पुराने शहर बोहरी कदल में बनी खानख्वाह ए मौला मस्जिद जाते थे। बेटियां खेतों में आकर रऊफ करतीं थी। अब आदतें भी बदल गई हैं और माहौल भी।



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डल झील के किनारे दिनभर किसी रोजी का इंतजार करते ये शिकारे वाले यूं वहीं खाली पड़ी बेंच पर नमाज पढ़ लेते हैं। इबादत के लिए इससे खूबसूरत शायद ही कोई दूसरी जगह हो। (फोटो क्रेडिट: आबिद बट)


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